मुझ पर निगाह-ए-गर्दिश-ए-दौराँ नहीं रही
मुझ पर निगाह-ए-गर्दिश-ए-दौराँ नहीं रही
शायद किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ नहीं रही
वहशत तक आ गया है मोहब्बत का सिलसिला
अब मुझ को फ़िक्र-ए-जेब-ओ-गरीबां नहीं रही
मेरे जिगर में ख़ून के क़तरे नहीं रहे
उन की नज़र में बरश-ए-पिन्हाँ नहीं रही
ज़ौक़-ए-तलब से तेरी इनायात बढ़ गईं
मेरी नज़र में वुसअ'त-ए-दामाँ नहीं रही
दिल यूँ बुझा बुझा सा ही खो कर तुम्हारी याद
महफ़िल में जैसे शम-ए-फ़रोज़ाँ नहीं रही
किस दर्जा दिल-शिकन है गुलिस्ताँ का इंक़लाब
बुलबुल भी अब चमन में ग़ज़ल-ख़्वाँ नहीं रही
'इक़बाल' सर्द हो गई बज़्म-ए-हयात भी
जब से दिलों में आतिश-ए-सोज़ाँ नहीं रही
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