बैठ जाता था मैं थक कर अपने तन की छाँव में

बैठ जाता था मैं थक कर अपने तन की छाँव में

एक घर होता था अपने नाम का उस गाँव में

क़तरे क़तरे को तरसता ही रहा मैं उम्र भर

गो सफ़र करता रहा मैं उम्र भर दरियाओं में

मर के जीता था कभी मैं जी के मरता था कभी

ख़ुश-नसीबी थी सफ़र करता था दो दुनियाओं में

देखती आँखों से हम चुप-चाप सुनते ही रहे

गुफ़्तुगू जारी थी रंग-ए-गुल पे ना-बीनाओं में

शहर में रहते हुए तन्हाई का ये हाल था

मैं घिरा रहता था जैसे बे-कराँ सहराओं में

जिस शजर को काट कर उस ने हटाया राह से

रह चुका था वो शजर उस के करम-फ़रमाआें में

ख़्वाब में 'आलम' ने औज-ए-अर्श तक पर्वाज़ की

और जागे तो वही चक्कर था अपने पाँव में

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