ज़ुल्फ़ को था ख़याल बोसे का
ज़ुल्फ़ को था ख़याल बोसे का
ख़त ने लिक्खा सवाल बोसे का
दोहरे पत्तों के ज़ेर-ए-साया हुआ
सब क़लम-बंद हाल बोसे का
चश्मक-ए-ख़ाल-ए-रुख़ ने साफ़ कहा
है तबस्सुम मआल बोसे का
सब्ज़ा-ए-नौ-दमीदा ने मारा
गिर्द-ए-रुख़्सार जाल बोसे का
रह गया तेरे मुखड़े पर बाक़ी
अब मकाँ ख़ाल ख़ाल बोसे का
हो ग़ज़ब अपने बाल नोच लिए
है ये सारा वबाल बोसे का
तेरे ग़ुस्से से अब कोई 'इंशा'
छोड़ता है ख़याल बोसे का
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