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ज़िन्हार हिम्मत अपने से हरगिज़ न हारिए - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

ज़िन्हार हिम्मत अपने से हरगिज़ न हारिए

ज़िन्हार हिम्मत अपने से हरगिज़ न हारिए

शीशे में उस परी को न जब तक उतारिए

औज़ा ढूँढ-ढाड के यारों से सीखिए

होते नहीं जहान में हम से नियारिए

ऐ अश्क-ए-गर्म कर मिरे दिल का इलाज कुछ

मशहूर है कि चोट को पानी से धारिए

जो अहल-ए-फ़क़्र-ओ-शाह कुम्हारे के हैं मुरीद

पाले हैं इन सभों ने कबूतर कुमहारिए

गलने की दाल याँ नहीं बस ख़ुश्का खाइए

ऐ शैख़ साहब आप न शेख़ी बघारिए

कल जिन को खीरे ककड़ी क्या कोस काट कर

आज उस परी ने इन को दिए नर्म आरिए

हो आब में कदर तो ठहर जाइए टुक एक

दिल में कुदूरत आवे तो क्यूँकर निथारिए

है कौन सी ये वज़्अ भला सोचिए तो आप

बातें उधर को कीजे इधर आँख मारिए

पूछे हक़ीक़त एक ने जो अम्न-ए-राह की

तो बोले सर झुका के बचा वो मदारिए

ख़तरा न आप कीजे बस अब ख़ैर शौक़ से

सोना उछालते हुए घर को सिधारिए

है जो बुलंद-हौसला उन की ये चाल है

क्या फिर उन्हें बिगाड़िए जिन को सँवारिए

पंडित जी हम में उन में भला कैसे होने के

पोथी को अपने खोलिए कुछ तो बिचारिए

'इंशा' कोई जवाब भी देना नहीं हमें

बाँग-ए-जरस की तरह कहाँ तक पुकारिए

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