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याँ ज़ख़्मी-ए-निगाह के जीने पे हर्फ़ है - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

याँ ज़ख़्मी-ए-निगाह के जीने पे हर्फ़ है

याँ ज़ख़्मी-ए-निगाह के जीने पे हर्फ़ है

है दिल पर अपने ज़ख़्म कि सीने पे हर्फ़ है

ज़र-ख़र्चियाँ कहाँ तलक अपनी बयाँ करें

क़ारून की भी याँ तो ख़ज़ीने पे हर्फ़ है

मिलते थे चौथे पाँचवें वो वक़्त तो गया

अब ये कि चार पाँच महीने पे हर्फ़ है

क्या दख़्ल वो जो हाथ से मेरे पिएँ शराब

वाँ कहते कहते बात भी पीने पे हर्फ़ है

तूफ़ान-ए-अश्क 'नूह'-अलैहिस्सलाम से

बोला कि आप के भी सफ़ीने पे हर्फ़ है

ना-चीज़ आप जानते हैं इस क़दर मुझे

उल्फ़त तो जावे भाड़ में कीने पे हर्फ़ है

नासेह जिगर के ज़ख़्म को जर्राह क्या सिए

याँ सोज़न-ए-मसीह के सीने पे हर्फ़ है

याँ हर बुन-ए-मसाम में ख़ूनाबा है रवाँ

निकले तो ख़ूँ ही निकले पसीने पे हर्फ़ है

'इंशा' की मोहर पढ़िए भला आश्ना हुआ

कंदीदा कोई इस के नगीने पे हर्फ़ है

अब ध्यान कर के देखिए क्या है गठा हुआ

इस का हर एक अपने क़रीने पे हर्फ़ है

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