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या वस्ल में रखिए मुझे या अपनी हवस में - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

या वस्ल में रखिए मुझे या अपनी हवस में

या वस्ल में रखिए मुझे या अपनी हवस में

जो चाहिए सो कीजिए हूँ आप के बस में

ये जा-ए-तरह्हुम है अगर समझे तू सय्याद

मैं और फँसूँ इस तरह इस कुंज-ए-क़फ़स में

आती है नज़र उस की तजल्ली हमें ज़ाहिद

हर चीज़ में हर संग में हर ख़ार में ख़स में

हर रात मचाते फिरें हैं शौक़ से धूमें

ये मस्त-ए-मय-ए-इश्क़ हैं कब ख़ौफ़-ए-असस में

क्या पूछते हो उम्र कटी किस तरह अपनी

जुज़ दर्द न देखा कभू इस तीस बरस में

हर बात में ये जल्दी है हर नुक्ते में इसरार

दुनिया से निराली हैं ग़रज़ तेरी तो रस्में

दुश्मन को तिरे गाड़ूँ मैं ऐ जान-ए-जहाँ बस

तू मुझ को दिलाया न कर इस तौर की क़स्में

'इंशा' तिरे गर गोश असम हों न तो आवे

आवाज़ तिरे यार की हर बाँग-ए-जरस में

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