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वो परी ही नहीं कुछ हो के कड़ी मुझ से लड़ी - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

वो परी ही नहीं कुछ हो के कड़ी मुझ से लड़ी

वो परी ही नहीं कुछ हो के कड़ी मुझ से लड़ी

आँख नर्गिस से भी दो-चार घड़ी मुझ से लड़ी

वास्ते तेरे मिरा रंग-महल है दुश्मन

तेरी ख़ातिर तो हर इक छोटी बड़ी मुझ से लड़ी

झड़ लगा दी मिरी आँखों ने तो लो और सुनो

टुकटुकी बाँध के क्यूँ मुँह की झड़ी मुझ से लड़ी

रात लड़-भिड़ वो जो चुप हो रही तो उन के एवज़

बोलते थे वो जो सोने की घड़ी मुझ से लड़ी

बैठे बैठे कहीं बुलबुल को जो छेड़ा मैं ने

तो नसीम उस की बदल हो के खड़ी मुझ से लड़ी

कौन सी हूर यहाँ खेलने चौथी आई

बू-ए-गुल ले के जो फूलों की छड़ी मुझ से लड़ी

रूठ कर उन की गली में जो लगा तू 'इंशा'

हर इक उस दो लड़ी मोती की लड़ी मुझ से लड़ी

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