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वो देखा ख़्वाब क़ासिर जिस से है अपनी ज़बाँ और हम - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

वो देखा ख़्वाब क़ासिर जिस से है अपनी ज़बाँ और हम

वो देखा ख़्वाब क़ासिर जिस से है अपनी ज़बाँ और हम

कि गोया एक जा है उस में है वो नौजवाँ और हम

वो रो रो मुझ से कहता है ख़ुदा की बातें हैं वर्ना

भला टुक दिल में अपने ग़ौर कर तू ये मकाँ और हम

जो पूछा क़ैस से लैला ने जंगल में अकेले हो

तो बोले ऐ नहीं वहशत है और आह-ओ-फ़ुग़ाँ और हम

अजी गड़बड़ रही है अक़्ल अपने सब फ़रिश्तों से

पड़े फिरते हैं बाहम सैर करते क़ुदसियाँ और हम

नशा है आलम-ए-मस्ती है बे-क़ैदी है रिंदी है

कहाँ अब ज़ोहद-ओ-तक़्वा है ख़राबात-ए-मुग़ाँ और हम

नियाबत हम को रिज़वाँ की मिली मौला के सदक़े से

वगर्ना ओहदा-ए-दरबानी-ए-बाग़-ए-जिनाँ और हम

अजब रंगीनियाँ बातों में कुछ होती हैं ऐ 'इंशा'

बहम हो बैठते हैं जब सआदत-यार-ख़ाँ और हम

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