तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत
तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत
जिस से कि दिल की आग उठे जाग ऐ बसंत
कैफ़िय्यत-ए-बहार के तू उस को दे ख़बर
मौज-ए-नसीम की तरह उड़ लाग ऐ बसंत
हर शाख़ ज़र्द ओ सुर्ख़ ओ सियह हिज्र-ए-यार में
डसते हैं दिल को आन के जूँ नाग ऐ बसंत
मुँह देखो आशिक़ों के मुक़ाबिल हूँ रंग में
बाँधी है मुझ से किस लिए तू लाग ऐ बसंत
तुझ में कहाँ ये बूक़लमूनी कहाँ ये संग
दश्त-ओ-जबल को ख़ैर से अब भाग ऐ बसंत
जूँ तार-ए-चँग छेड़ न 'इंशा' को बात में
तेरा सुना हुआ है ये घटराग ऐ बसंत
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