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तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत

तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत

जिस से कि दिल की आग उठे जाग ऐ बसंत

कैफ़िय्यत-ए-बहार के तू उस को दे ख़बर

मौज-ए-नसीम की तरह उड़ लाग ऐ बसंत

हर शाख़ ज़र्द ओ सुर्ख़ ओ सियह हिज्र-ए-यार में

डसते हैं दिल को आन के जूँ नाग ऐ बसंत

मुँह देखो आशिक़ों के मुक़ाबिल हूँ रंग में

बाँधी है मुझ से किस लिए तू लाग ऐ बसंत

तुझ में कहाँ ये बूक़लमूनी कहाँ ये संग

दश्त-ओ-जबल को ख़ैर से अब भाग ऐ बसंत

जूँ तार-ए-चँग छेड़ न 'इंशा' को बात में

तेरा सुना हुआ है ये घटराग ऐ बसंत

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