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तोडूँगा ख़ुम-ए-बादा-ए-अंगूर की गर्दन - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

तोडूँगा ख़ुम-ए-बादा-ए-अंगूर की गर्दन

तोडूँगा ख़ुम-ए-बादा-ए-अंगूर की गर्दन

रख दूँगा वहाँ काट के इक हूर की गर्दन

ख़ुद्दार की बन शक्ल अलिफ़ हाए अनल-हक़

नित चाहती हैं इक नई मंसूर की गर्दन

क्यूँ साक़ी-ए-ख़ुर्शीद-ए-जबीं क्या है नशा हूँ

सब यूँही चढ़ा जाऊँ मय-ए-नूर की गर्दन

उछली हुइ वर्ज़िश से तरी डंड पे मछली

है नाम-ए-ख़ुदा जैसी सक़नक़ूर की गर्दन

था शख़्स जो गर्दन-ज़दनी उस से ये बोले

अब दीजिए है देनी जो मंज़ूर की गर्दन

आईने की गर सैर करे शैख़ ये देखे

सर ख़ुर्स का मुँह ख़ूक का लंगूर की गर्दन

यूँ पंजा-ए-मिज़्गाँ में पड़ा है ये मरा दिल

जूँ चंगुल-ए-शहबाज़ में उस्फ़ूर की गर्दन

तब आलम-ए-मस्ती का मज़ा है कि पड़ी हो

गर्दन पे मिरी उस बुत-ए-मख़मूर की गर्दन

बैठा हो जहाँ पास सुलैमान के आसिफ़

वाँ क्यूँ न झुकी क़ैसर ओ फ़ग़्फ़ूर की गर्दन

भेंची है बग़ल अपनी मैं इस ज़ोर से जो इश्क़

तो तोड़ने पर है किसी मजबूर की गर्दन

ऐ मस्त ये क्या क़हर है ख़िश्त-ए-सर-ए-ख़ुम से

क्यूँ तू ने'' सुराही की भला चूर की गर्दन

महफ़िल में तरी शम्अ बनी मोम की मर्यम

पिघली पड़ी है उस की वो काफ़ूर की गर्दन

ऐ देव-ए-सफ़ेद-ए-सहरी काश तू तोड़े

इक मुक्के से ख़ुर के शब-ए-दीजूर की गर्दन

जब कुश्त-ए-उल्फ़त को उठाया तो अलम से

बस हिल गई उस क़ातिल-ए-मग़रूर की गर्दन

बे-साख़्ता बोला कि अरे हाथ तो टुक दो

ढलके न मिरे आशिक़-ए-मग़्फ़ूर की गर्दन

हासिद तो है क्या चीज़ करे क़स्द जो 'इंशा'

तू तोड़ दे झट बल्ग़म-ए-बाऊर की गर्दन

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