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तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे

तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे

जब से मकतब में तू कहता था अलिफ़ बे ते से

याद आता है वो हर्फ़ों का उठाना अब तक

जीम के पेट में एक नुक्ता है और ख़ाली हे

हे की पर शक्ल हवासिल की सी आती है नज़र

नुक़्ता इस पर जो लगा ख़े हुआ ये वाह बे ख़े

दाल भी छोटी बहन उस की है जूँ आतूजे

एक परकाला सा बेटा भी है घर में उन के

रे भी ख़ाली है और ज़े पे है वो नुक्ता एक

कि मुशाबह है जो तिल से मिरी रुख़्सारे के

सीन ख़ाली है बड़ी शीन पे हैं नुक़्ता तीन

साद और ज़ाद में बस फ़र्क़ है इक नुक़्ते से

तोय बिन तुर्रा है और ज़ोय पर इक नुक़्ता फिर

ऐन बे-ऐब है और काने मियाँ ग़ेन हुए

फ़े पे इक नुक़्ता है और क़ाफ़ पे हैं नुक़्ता दो

काफ़ भी ख़ाली है और लाम भी ख़ाली, ये ले

मीम भी यूँ ही है और नून के अंदर नुक़्ता

मुफ़लिसा बेग है ये वाव भी और छोटी हे

क्या ख़लीफ़ा जी ये है है है नहीं से निकले

आगे छुट्टी दो ऐ लो लाम अलिफ़ हमज़ा ये

गालियाँ तेरी ही सुनता है अब 'इंशा' वर्ना

किस की ताक़त है अलिफ़ से जो कहे उस को बे

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