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शब ख़्वाब में देखा था मजनूँ को कहीं अपने - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

शब ख़्वाब में देखा था मजनूँ को कहीं अपने

शब ख़्वाब में देखा था मजनूँ को कहीं अपने

दिल से जो कराह उट्ठी लैला को लिया तप ने

देखे तिरे जल्वा को बाम्हन की जो बेटी भी

मुँह से वहीं कलमे को यकबार लगे जपने

है जिंस परी सा कुछ आदम तो नहीं असलन

इक आग लगा दी है उस अमर्द-ए-ख़ुश-गप ने

इस तरह के मिलने में क्या लुत्फ़ रहा बाक़ी

हम उस से लगे रुकने वो हम से लगा छपने

हंगाम-ए-सुख़न-संजी आतिश की ज़बानी को

शर्मिंदा किया ऐ दिल उस शोख़ के गप-शप ने

हर अम्र में दुनिया के मौजूद जिधर देखो

आदम को किया हैराँ शैतान की लप-झप ने

गर्मी से मिरे दिल की इस मौसम-ए-सर्मा में

ये गुम्बद-ए-गर्दूं भी यकबार लगा तपने

रह वादी-ए-ऐमन की लेता हूँ कि घबराया

इस दिल की बदौलत याँ मुझ को तरफ़-ए-चप ने

है हम से भी हो सकता जो कुछ न किया होगा

मजनूँ से जफ़ा-कश ने फ़रहाद से सर-खप ने

चल हट भी परे बिजली दल बादलों को ले कर

दहला है दिया तेरी तलवारों की शप शप ने

कब तक न कराहूँ मैं नाला न भरूँ क्यूँ-कर

मैं क्या करूँ ऐ 'इंशा' अब जी ही लगा खपने

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