साहब के हर्ज़ा-पन से हर एक को गिला है
साहब के हर्ज़ा-पन से हर एक को गिला है
मैं जो निबाहता हूँ मेरा है हौसला है
चौदह ये ख़ानवादे हैं चार पीर-तन में
चिश्तिय्या सब से अच्छे ये ज़ोर सिलसिला है
फिर कुछ गए हुओं की मुतलक़ ख़बर न पाए
क्या जानिए किधर को जाता ये क़ाफ़िला है
बार-ए-गराँ उठाना किस वास्ते अज़ीज़ो
हस्ती से कुछ अदम तक थोड़ा ही फ़ासला है
दे गालियाँ हज़ारों सुन मतला इस ग़ज़ल का
कहने लगे कि 'इंशा' इस का ये सिला है
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