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सद-बर्ग गह दिखाई है गह अर्ग़वाँ बसंत - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

सद-बर्ग गह दिखाई है गह अर्ग़वाँ बसंत

सद-बर्ग गह दिखाई है गह अर्ग़वाँ बसंत

लाई है एक ताज़ा शगूफ़ा यहाँ बसंत

भर भर के गुलिस्ताँ में मय-ए-ऐश-ओ-जश्न से

देती है हर घड़ी मुझे रित्ल-ए-गराँ बसंत

तू उठ चला तो ज़र्द हुए सब के रंग-ए-रू

कल आ गई बहार में ये ना-गहाँ बसंत

आते नज़र हैं दश्त-ओ-जबल ज़र्द हर तरफ़

है अब के साल ऐसी है ऐ दोस्ताँ बसंत

शादाबी-ए-नसीम से बहर-ए-सुरूर को

करती है जोश मार के अब बे-कराँ बसंत

गर फ़िल-मसल मलाइका हों अहल-ए-ज़ोहद सब

ले आवे बहर-ए-सैर उन्हें मू-कशाँ बसंत

पत्ते नहीं चमन में खड़कते तिरे बग़ैर

करती है इस लिबास में हर-दम फ़ुग़ाँ बसंत

गर शाख़-ए-ज़ाफ़राँ उसे कहिए तो है रवा

है फ़रह-बख़्श वाक़ई इस हद कोहाँ बसंत

गुरवा बना के रीश-ए-मोख़ज़्ज़ब से मोहतसिब

जाता है उस मक़ाम में जावे जहाँ बसंत

'इंशा' से शैख़ पूछता है क्या सलाह है

तर्ग़ीब-ए-बादा दी है मुझे ऐ जवाँ बसंत

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