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फबती तिरे मुखड़े पे मुझे हूर की सूझी - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

फबती तिरे मुखड़े पे मुझे हूर की सूझी

फबती तिरे मुखड़े पे मुझे हूर की सूझी

ला हाथ इधर दे कि बहुत दूर की सूझी

टुक देखिएगा जुब्बा-ओ-अम्मामा-ए-ज़ाहिद

है उस पे मुझे बलअम-ए-बाऊर की सूझी

क्यूँ मैं दिल-ए-पुर-आबला पर ताक न बाँधूँ

है इस पे मुझे ख़ोशा-ए-अंगूर की सूझी

है शैख़-ए-सियह-चेहरा जो मज्लिस में फुदकता

यारों को यहाँ रूई के लंगूर की सूझी

वाइ'ज़ जो पढ़ा जिन मुतबख़्तिर है निहायत

उस पर मुझे शैतान की है पूर की सूझी

हाथ अपने से जब छुट गई इस डंड की मछली

तब उस के तड़पने पे सक़नक़ूर की सूझी

हाँ ऐ शफ़क़-ए-सुब्ह तिरी देख के रंगत

शंजर्रफ़ की सूझी मुझे काफ़ूर की सूझी

जब फूल झड़े नूर के इस आह से मेरी

इस पर मुझे 'इंशा' शजर-ए-तूर की सूझी

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