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मिल गए पर हिजाब बाक़ी है - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

मिल गए पर हिजाब बाक़ी है

मिल गए पर हिजाब बाक़ी है

फ़िक्र-ए-नाज़-ओ-इताब बाक़ी है

बात सब ठीक-ठाक है प अभी

कुछ सवाल-ओ-जवाब बाक़ी है

गरचे माजून खा चुके लेकिन

दौर-ए-जाम-ए-शराब बाक़ी है

झूटे वादे से उन के याँ अब तक

शिकवा-ए-बे-हिसाब बाक़ी है

गाह कहते हैं शाम हूई अभी

ज़र्रा-ए-आफ़्ताब बाक़ी है

फिर कभी ये कि अब्र में कुछ-कुछ

परतव-ए-माहताब बाक़ी है

है कभी ये कि तुझ पे छिड़केंगे

जो लगन में शहाब बाक़ी है

और भड़के है इश्तियाक़ की आग

अब किसे सब्र-ओ-ताब बाक़ी है

उड़ गई नींद आँख से किस की

लज़्ज़त-ए-ख़ुर्द-ओ-ख़्वाब बाक़ी है

है ख़ुशी सब तरह की, नाहक़ का

ख़तरा-ए-इंक़लाब बाक़ी है

है वो दिल की धड़क सो जूँ की तूँ

जी पर उस का अज़ाब बाक़ी है

जो भरा शीशा था हुआ ख़ाली

पर वो बू-ए-गुलाब बाक़ी है

अपनी उम्मीद थी सो बर आई

यास शक्ल-ए-सराब बाक़ी है

है यही डोल जब तक आँखों में

दम बसान-ए-हबाब बाक़ी है

मिस्ल-ए-फ़र्मूदा-ए-हुज़ूर 'इंशा'

फिर वही इज़्तिराब बाक़ी है

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