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क्या मिला हम को तेरी यारी में - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

क्या मिला हम को तेरी यारी में

क्या मिला हम को तेरी यारी में

रहे अब तक उमीद-वारी में

हाथ गहरा लगा कू-ए-क़ातिल

ज़ोर-ए-लज़्ज़त है ज़ख़्म-ए-कारी में

दिल जो बे-ख़ुद हुआ सबा लाई

किस की बू निगहत-ए-बहारी में

टुक उधर देख तू भला ऐ चश्म

फ़ाएदा ऐसी अश्क-बारी में

चट लगा देते हैं मिरे आँसू

सिल्क-ए-गौहर के आब-दारी में

रूठ कर उस से मैं जो कल भागा

ना-गहाँ दिल की बे-क़रारी में

आ लिया उस ने दौड़ कर मुझ को

ताक के ओछल एक क्यारी में

यूँ लगा कहने बस दिवाना न बन

पावँ रख अपना होशियारी में

कब तलक मैं भला रहूँ शब-ओ-रोज़

तेरी ऐसी मज़ाज-दारी में

है समाया हुआ जो लड़का-पन

आप की वज़्अ' प्यारी प्यारी में

अपनी बकरी का मुँह चिड़ाते वक़्त

क्या ख़ुश आती है ये तुम्हारी ''में''

बंदा-ए-बू-तुराब है 'इंशा'

शक नहीं उस की ख़ाकसारी में

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