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क्या भला शैख़-जी थे दैर में थोड़े पत्थर - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

क्या भला शैख़-जी थे दैर में थोड़े पत्थर

क्या भला शैख़-जी थे दैर में थोड़े पत्थर

कि चले काबा के तुम देखने रोड़े पत्थर

ऐ बसा कोहना इमारात-ए-मक़ाबिर जिन के

लोगों ने चोब-ओ-चगल के लिए तोड़े पत्थर

जाओ ऐ शैख़ ओ बरहमन हरम-ओ-दैर को तुम

भाई बेज़ार हैं हम हम ने ये छोड़े पत्थर

कभी दिल-हा-ए-बुताँ तुझ से पसीजें ऐ अश्क

तो ये हम जानें कि बस तू ने निचोड़े पत्थर

न चिरे नोक से नश्तर के आयाज़म-बिल्लह

कोई उश्शाक़ के थे छाती के फोड़े पत्थर

कोस बैठें फ़ुक़रा अहल-ए-दुवल को तो अभी

उन के हाथी हों पहाड़ और ये घोड़े पत्थर

गर सग-ए-गुरसिना ले शूम के मतबख़ की बास

तो भला हड्डी की जा क्या वो भंबोड़े पत्थर

न हिंसा मैं जो हँसाने से शब उन की तो कहा

तुझे क़ुर्बान करूँ हाए निगोड़े पत्थर

एक ग़ज़ल और सुना दे हमें 'इंशा' हर-चंद

तू ने इस में भी किसी ढब के न छोड़े पत्थर

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