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जब तक कि ख़ूब वाक़िफ़-ए-राज़-ए-निहाँ न हूँ - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

जब तक कि ख़ूब वाक़िफ़-ए-राज़-ए-निहाँ न हूँ

जब तक कि ख़ूब वाक़िफ़-ए-राज़-ए-निहाँ न हूँ

मैं तो सुख़न में इश्क़ के बोलूँ न हाँ न हूँ

ख़ल्वत में तेरी बार न जल्वत में मुझ को हाए

बातें जो दिल में भर रही हैं सो कहाँ कहूँ

गाहे जो उस की याद से ग़ाफ़िल हो एक दम

मुझ को दहन में अपने लगी है ज़बाँ ज़ुबूँ

शत्त-ए-अमीक़-ए-इश्क़ को ये चाहता हूँ मैं

अब्र-ए-मिज़ा से रो के उसे बे-कराँ करूँ

तूफ़ान-ए-नूह आँख न हम से मिला सके

आती नज़र हैं चश्म से हर पल अयाँ उयूँ

नासेह ख़याल-ए-ख़ाम से क्या इस से फ़ाएदा

कब मेरे दिल से हो हवस-ए-दिल-बराँ बरूँ

ये इख़्तिलात कीजिए मौक़ूफ़ नासेहा

माक़ूल यानी दिल उसे ऐ क़द्र-दाँ न दूँ

'इंशा' करूँ जो पैरवी-ए-शैख़-ओ-बरहमन

मैं भी उन्हों की तरह से जूँ गुमरहाँ रहूँ

ख़ल्वत-सरा-ए-दिल में है हो कर के मोतकिफ़

बैठा हूँ क्या ग़रज़ कहीं ऐ जाहिलाँ हिलूँ

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