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गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं

गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं

वो हैं उठ जाते हैं ये और सितम करते हैं

जी न लग जाए कहीं तुझ से इसी वास्ते बस

रफ़्ता रफ़्ता तिरे हम मिलने को कम करते हैं

वाक़ई यूँ तो ज़रा देखियो सुब्हान-अल्लाह

तेरे दिखलाने को हम चश्म ये नम करते हैं

इश्क़ में शर्म कहाँ नासेह-ए-मुशफ़िक़ ये बजा

आप को क्या है जो इस बात का ग़म करते हैं

गालियाँ खाने को उस शोख़ से मिलते हैं हाँ

कोई करता नहीं जो काम सो हम करते हैं

हैं तलबगार मोहब्बत के मियाँ जो अश्ख़ास

वो भला कब तलब-ए-दाम-ओ-दिरम करते हैं

ऐन मस्ती में हमें दीद-ए-फ़ना है 'इंशा'

आँख जब मूँदते हैं सैर-ए-अदम करते हैं

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