दस अक़्ल दस मक़ूले दस मुद्रिकात तीसों
दस अक़्ल दस मक़ूले दस मुद्रिकात तीसों
तेरे ही ज़िक्र में हैं ऐ पाक-ज़ात तीसों
नो आसमाँ ख़ुर-ओ-मह सातों तबक़ ज़मीं के
रूह-ओ-हवास-ए-ख़मसा और शश-जहात तीसों
बारा बुरूज चौदह मासूम चार उंसुर
ज़ाहिर करें हैं तेरी लाखों सिफ़ात तीसों
सी-पारहा-ए-दिल को रखियो मुहाफ़िज़त से
ऐ मेरी जाँ हैं तेरी हिफ़्ज़-ए-हयात तीसों
माह-ए-गुज़िश्ता का हाल 'इंशा' कहूँ सो क्यूँकर
मर मर बसर किए हैं दिन और रात तीसों
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