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छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो

छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो

बात में तुम तो ख़फ़ा हो गए लो और सुनो

तुम कहोगे जिसे कुछ क्यूँ न कहेगा तुम को

छोड़ देगा वो भला देखिए तो और सुनो

ये भी इंसाफ़ है कुछ सोचो तो अपने दिल में

तुम तो सौ कह लो मिरी कुछ न सुनो और सुनो

अब तो कुछ इतने ख़फ़ा हो कि कहो हो मुझ से

है क़सम तुम को मिरा नाम न लो और सुनो

अर्ज़-ए-अहवाल मिरा सुन के झिड़क कर बोले

जाव, रे वाव ज़बर रौ हो, चलो और सुनो

चल के दो एक क़दम देखते फिर हो यूँ को

गालियाँ सुन तो चुके चाहते हो और सुनो

आप ही आप मुझे छेड़ो रुको फिर आफी

आप ही बात में फिर रूठ रहो और सुनो

आफ़रीं ईं न यही चाहिए शाबाश तुम्हें

देख रोता मुझे यूँ हँसने लगो और सुनो

बात मेरी जो नहीं सुनते अकेले मिल के

ऐसे है ढब से सुनाऊँ कि सुनो और सुनो

शिकवा-मंद आप से 'इंशा' हो सो उस का क्या दख़्ल

तुम न मानो तो कहीं चुपके छुपो और सुनो

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