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आने अटक अटक के लगी साँस रात से - इंशा अल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

आने अटक अटक के लगी साँस रात से

आने अटक अटक के लगी साँस रात से

अब है उमीद सिर्फ़ ख़ुदा ही की ज़ात से

साक़ी हवा-ए-सर्द को तू सरसरी न जान

कैफ़िय्यत उस की पूछ नबात-ए-नबात से

अपना सनम वो क़हर है ऐ बरहमन कि गर

देखे मनात को तो गिरा देवे लात से

कल से तो इख़्तिलात में ताज़ा है इख़तिराअ'

रुकने लगी हैं आप मिरी बात बात से

पेश आइए ब-शफ़क़त-ओ-लुत्फ़ उस से शैख़ जी

बिंत-उल-अनब को जानिए अपने नबात से

हासिल किया जो हम ने क़दम-बोस-ए-पीर-ए-दैर

आई सदा-ए-इश्क़ दर-ए-सोमनात से

हैं वाजिब-उल-वजूद के अनवार इश्क़ में

उस की सिफ़ात-ए-ज़ात नहीं मुम्किनात से

अशआ'र-ए-तब्अ'-ज़ाद मिरी सुन के शोख़ वो

कहने लगा कि फ़ाएदा इस मोहमलात से

मुतलक़ मिला के आँख इधर देखते नहीं

आते नज़र हो आज भी कम इल्तिफ़ात से

'इंशा' ने आ लगा ही लिया तुम को बात में

ज़ालिम वो चूकता है कोई अपनी घात से

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