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तज़ाद - इंजिला हमेश कविता - Darsaal

तज़ाद

दीवार पे रेंगता हुआ कीड़ा

नज़र से ओझल हो जाता है

वो दीवार के आख़िरी सिरे तक पहुँच सका

या बीच में ही गिर गया

दीवार ही तो उस के वजूद का सहारा है

वो बस रेंगने की आज़ादी चाहता है

अगर वो दीवार के आख़िरी सिरे तक पहुँच गया

तो उसे ज़िंदा रहने का सुख मिलेगा

मगर उस का ज़िंदा रहना ख़तरा है

कि उस रेंगते हुए कीड़े के मुर्दा वजूद पे

बड़े बड़े ऐवान खड़े हैं

जिस में बसने वालों ने

कीड़े को दीवार से गिराया

और अब वो इस के सोग में

सदा-ए-एहतिजाज बुलंद करेंगे

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