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सच - इंजिला हमेश कविता - Darsaal

सच

सच कहाँ है

तारीख़ के औराक़ में

तारीख़ से बड़ा धोका तो कुछ नहीं

तारीख़ तो अपने अपने

दलालों के मा-तहत रही

कोई झूट किस तरह सच में तब्दील हो जाता है

इस का जवाब देने के लिए सीता बाक़ी न रही

हर उस मोड़ पे बात अधूरी रह गई

जो अगर मुकम्मल हो जाती

तो अहल-ए-फ़साद का कारोबार कैसे चलता

तो क्या किसी चीज़ को हलाल करने के लिए

हराम की आमेज़िश दरकार है

कहीं ऐसा तो नहीं

रसूल के नाम लेवा

अबु-जेहल के रास्ते पर चल पड़े हों

कहीं ऐसा तो नहीं फ़लसफ़ा-ए-शहादत का दर्स

यज़ीद दे रहा हो

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