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मोहब्बत - इंजिला हमेश कविता - Darsaal

मोहब्बत

हम मुसीबत के मारे मोहब्बत नहीं कर सकते

मोहब्बत अगर महबूब की बाँहों में बाँहें डाले समुंदर के किनारे चलने का नाम है

तो हमें वो किनारा कभी नहीं मिला

मोहब्बत अगर महबूब के काँधों पर घड़ी-दो-घड़ी के सुकून का नाम है

तो हमें वो काँधे मयस्सर नहीं

हम तो अपनी आग में मुस्तक़िल जलते हैं

हमें क्या मा'लूम

किसी के लम्स की हिद्दत में क्या लुत्फ़ मिलता है

हम ने ख़ुद गले लगाया ख़सारे को

हम पे इनायत कैसे हो सकती है

हम ना-वाक़िफ़ हैं मोहब्बत के लवाज़िमात से

हमें नहीं आती वो अदाएँ

जो किसी की आँखों से नींद छीन लें

हमें क्या सरोकार रूठने मनाने के सारे सिलसिलों से

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