एक कहानी इश्क़ की
मैं तेरे बहत्तर साथियों में नहीं था
मुझे तो इश्क़ ने मुंतख़ब किया था
एक वहशत-नाक भीड़ थी मेरे इर्द-गिर्द
मगर मैं इस भीड़ में होते हुए भी
किसी वहशत का हिस्सा न था
मैं तो तन्हा था
अहल-ए-हकम के नज़दीक तो एक बाग़ी था
और वो तमाम हुजूम जो फ़क़त हुजूम था
बे-चेहरा बे-किरदार बे-ज़ेहन फ़क़त हुजूम
जो अपनी ग़लत ज़रूरतों की ख़ातिर
वही कहते जो अहल-ए-हक्म कहते वही सुनते जो उन्हें सुनाया जाता
वही देखते जो उन्हें दिखा जाता
सू-ए-हुसैन-इब्न-ए-अली
तुम बाग़ी ठहरे
मैं इस हुजूम का हिस्सा नहीं था
मगर तुम तक आने के लिए मुझे इस हुजूम से गुज़रना था
तुम्हारे सच को जानने के लिए
मैं ने कितने ही झूट सुने
मैं बातिल के रास्तों को उबूर कर के
हक़ तक पहुँचा
मैं तेरे बेहतर साथियों में नहीं था
मगर मशिय्यत को मंज़ूर था कि हुसैन हुर से मिले
कि तारीख़ को बावर हो
अहल-ए-इश्क़ के फ़ैसले
ख़ुदा के फ़ैसले होते हैं
जिस ने ज़माने की क़सम खा कर
ख़सारे का मफ़्हूम समझाया
और मैं ने जूम-ए-ग़लत के दरमियान
इस मफ़्हूम को पा लिया
मैं तेरे बहत्तर साथियों में नहीं था
हुसैन मैं तेरा हुर था
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