सस्ती नज़्म
कैसे मातम करूँ
कैसे नौहे लिखूँ
कैसे रूहों की चीख़ों से नज़्में बुनूँ
जागती बैन करती हवाओं से
जा कर लिपट जाऊँ क्या
किरची किरची ये ख़्वाबों के आ'ज़ा जो बिखरे पड़े हैं
उन्हें देख कर फिर पलट जाऊँ क्या
अपने अक़दार से क़ौल-ओ-इक़रार से पीछे हट जाऊँ क्या
मुझ को इक़रार है
मैं ने ख़्वाबों में बिछड़े कई ख़्वाब-चेहरे लिखे ही नहीं
मैं ने हाथों में पकड़े किसी हाथ के ख़ौफ़ लिखे नहीं
मैं ने आँखों से बहते लहू-रंग को लाल लिक्खा नहीं
मैं ने अब तक किसी कोख वीरानी का हाल लिक्खा नहीं
क्यूँ ये वहशी क़लम मेरे विज्दान में नज़्म बोता नहीं
मेरे इल्हाम से ये जो लिपटा हुआ ख़ौफ़ का अक्स है क्यूँ ये सोता नहीं
अब कोई हादिसा हो भी जाए अगर तो भी होता नहीं
नज़्म लिक्खूँ मगर
अब मिरे शहर में नज़्म लिखने पे कोई भी रोता नहीं
(770) Peoples Rate This