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राज़ी-नामा - इंजील सहीफ़ा कविता - Darsaal

राज़ी-नामा

रात के काले बदन पे सितारे टाँकने की मश्क़

अपनी रूह पर पैवंद लगाने जैसी मुश्किल नहीं होती

आसमान से लटकती शाख़ों पर

मन्नतों के धागे कब तक बाँधे जा सकते हैं

बुझे हुए कोएले और गीली लकड़ी चिंगारी नहीं पकड़ते

सोई हुई सर्द मोहब्बत ने करवट बदल ली है

चराग़ ले कर सफ़र पर निकलने वाली तितली को

चौदह दिन पुराने चाँद से क्या ग़रज़

बहती हुई सड़कों से अपना रास्ता चुन लेना

और आवाज़ों में से अपने हिस्से की आवाज़ सुन लेना

आसमान के बस में कब है

उस के जुज़दान में लिपटी सहीफ़े जैसी रात नाज़िल हो गई है

सात सुरों में बहता रात का ये पहला पहर और

किन-मिन सा बरसता तुम्हारा नर्म एहसास

बारिश के बाएँ गाल पर रखा हुआ है

आग बारिश की बोली बोल रही है

सितंबर की ग्यारहवीं रात है

सड़क की सिलवटों पर अठखेलियाँ लेती मोहब्बत को

बारिश के पानी से बा-वज़ू दरख़्तों ने सज्दा कर लिया है

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