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सीप मुट्ठी में है आफ़ाक़ भी हो सकता है - इंजील सहीफ़ा कविता - Darsaal

सीप मुट्ठी में है आफ़ाक़ भी हो सकता है

सीप मुट्ठी में है आफ़ाक़ भी हो सकता है

और अगर चाहूँ तो ये ख़ाक भी हो सकता है

ये जो मा'सूम सा डर है किसी बच्चे जैसा

ऐसे हालात में सफ़्फ़ाक भी हो सकता है

आओ उस तीसरे नुक्ते पे भी कुछ ग़ौर करें

हम जिसे जुफ़्त कहें ताक़ भी हो सकता है

वज्द में रक़्स तो बे-ख़ौफ़ किया जाता है

हो अगर इश्क़ तो बेबाक भी हो सकता है

हिज्र नासूर है चुप-चाप ही झेलो इस को

आह-ओ-ज़ारी से ख़तरनाक भी हो सकता है

ये जो सरसब्ज़ सा लगता है उमीदों का शजर

रुत बदलने पे ये ख़ाशाक भी हो सकता है

तो अभी भेज दे उस पार से रहमत कोई

मैं ये सुनती हूँ करम डाक भी हो सकता है

वो जो कोसों तुझे फैला हुआ आता है नज़र

वो समुंदर मिरी पोशाक भी हो सकता है

ये सियाह-बख़्त उसे ढूँडने लग जाएँ अगर

उन को फिर नूर का इदराक भी हो सकता है

मैं जो मिट्टी से ख़ुदा और बनाना चाहूँ

आसमाँ मेरे लिए चाक भी हो सकता है

क्यूँ ना 'इंजील' दोबारा से उतारी जाए

कोई ईसाई की तरह पाक भी हो सकता है

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