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मिरा चेहरा भोला ओ माही - इंजील सहीफ़ा कविता - Darsaal

मिरा चेहरा भोला ओ माही

मिरा चेहरा भोला ओ माही

पर रूप सँपोला ओ माही

तिरी ताल-से-ताल मिला बैठी

मिरा अंग अंग डोला ओ माही

कोई राख पतंगों वाली हो

जले हुस्न का शो'ला ओ माही

मुझे भेज ना अपनी बस्ती का

वही उड़न-खटोला ओ माही

तिरी सुंदरता पे हैराँ हूँ

मुझे दर्पन बोला ओ माही

मैं ने बंद किवाड़ भी खोल दिए

मैं ने मन भी खोला ओ माही

मिरे नैन नैन सब दासी से

मिरा जोगी-चोला ओ माही

तिरा लम्स लहू में दौड़ा है

तू ने ज़हर सा घोला ओ माही

तिरी प्रीत में सुध-बुध खो बैठी

तिरे इश्क़ ने रौला ओ माही

मिरे रूप-सरूप को पूजता है

तू है सांवल ढोला ओ माही

मुझे प्रेम के अक्षर भूल गए

कोई पंद्रह सोला ओ माही

मिरा हार-सिंघार भी बे-मतलब

तिरा दिल बे-मोला ओ माही

मुझे गुर व्योपार के सिखला दे

ज़रा माशा-तोला ओ माही

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