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फ़ज़ा में रंग से बिखरे हैं चाँदनी हुई है - इंजील सहीफ़ा कविता - Darsaal

फ़ज़ा में रंग से बिखरे हैं चाँदनी हुई है

फ़ज़ा में रंग से बिखरे हैं चाँदनी हुई है

किसी सितारे की तितली से दोस्ती हुई है

मिरी तमाम रियाज़त का एक हासिल है

वही दुआ जो तेरे नाम से जुड़ी हुई है

मैं हादसे से निकल आई हूँ मगर देखो

ज़मीन अब भी मिरे जिस्म पर पड़ी हुई है

अभी तो तू ने मिरा हाथ भी नहीं थामा

ये किस ख़बर से ज़माने में सनसनी हुई है

उदासी जोंक है ये ख़ून चूस लेती है

ये बात मैं ने कहीं और भी सुनी हुई है

मैं तेरे लम्स के जादू से ख़ूब वाक़िफ़ हूँ

वो शाख़ हूँ जो तिरे हाथ पर हरी हुई है

जो आँखें सेंक रहे हैं उन्हें ख़बर ही नहीं

यहाँ पे ख़्वाब जले हैं तो रौशनी हुई है

मैं लाल रंग लगाती थी नीले ख़्वाबों को

इसी लिए तो ये ता'बीर कासनी हुई है

वो मेरे बारे में क्या सोचता है क्या मा'लूम

ख़ुदा से मेरी मुलाक़ात सरसरी हुई है

मैं पिछले साल की तस्वीर भेज देती तुझे

मगर ये एक तरफ़ से ज़रा जली हुई है

मज़ा तो जब है कि 'इंजील' ही लगे सब को

नुज़ूल-ए-इश्क़ पे जितनी भी शाइ'री हुई है

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