मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग
मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग
किसी चलते हुए जोगी की सदा हैं हम लोग
मंज़िलें पाओगे हम ख़ाक-नशीनों के तुफ़ैल
हम ने माना कि निशान-ए-कफ़-ए-पा हैं हम लोग
अहल-ए-मय-ख़ाना हमें देख के हँसते हैं तो क्या
पीर-ए-मय-ख़ाना को मा'लूम है क्या हैं हम लोग
ज़िंदगी क़ैद की मुद्दत है तो ये भी सच है
अपने ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा हैं हम लोग
जो अभी वक़्त के गुम्बद में है महफ़ूज़ ऐ 'कैफ़'
और पलट कर नहीं आई वो सदा हैं हम लोग
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