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मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग - इंद्र मोहन मेहता कैफ़ कविता - Darsaal

मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग

मिटती क़द्रों में भी पाबंद-ए-वफ़ा हैं हम लोग

किसी चलते हुए जोगी की सदा हैं हम लोग

मंज़िलें पाओगे हम ख़ाक-नशीनों के तुफ़ैल

हम ने माना कि निशान-ए-कफ़-ए-पा हैं हम लोग

अहल-ए-मय-ख़ाना हमें देख के हँसते हैं तो क्या

पीर-ए-मय-ख़ाना को मा'लूम है क्या हैं हम लोग

ज़िंदगी क़ैद की मुद्दत है तो ये भी सच है

अपने ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा हैं हम लोग

जो अभी वक़्त के गुम्बद में है महफ़ूज़ ऐ 'कैफ़'

और पलट कर नहीं आई वो सदा हैं हम लोग

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