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अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है - इनाम नदीम कविता - Darsaal

अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है

अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है

ये शहर बुलंदी से दरिया नज़र आता है

देता है कोई अपने दामन की हवा उस को

शो'ला सा मिरे दिल में जलता नज़र आता है

उस हाथ का तोहफ़ा था इक दाग़ मिरे दिल पर

वो दाग़ भी अब लेकिन जाता नज़र आता है

आँखों के मुक़ाबिल है कैसा ये अजब मंज़र

सहरा तो नहीं लेकिन सहरा नज़र आता है

इक शक्ल सी बनती है हर शब मिरी नींदों में

इक फूल सा ख़्वाबों में खिलता नज़र आता है

आँखों ने नहीं देखी उस जिस्म की रानाई

ये चार तरफ़ जिस का साया नज़र आता है

दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो

अंदर से कभी देखो कैसा नज़र आता है

फिर ज़ौ में 'नदीम' अपनी कुछ कम है सितारा वो

ये रात का आईना धुँदला नज़र आता है

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