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वुफ़ूर-ए-हुस्न की लज़्ज़त से टूट जाते हैं - इनाम कबीर कविता - Darsaal

वुफ़ूर-ए-हुस्न की लज़्ज़त से टूट जाते हैं

वुफ़ूर-ए-हुस्न की लज़्ज़त से टूट जाते हैं

कुछ आइने हैं जो हैरत से टूट जाते हैं

किसी जतन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी तुम्हें

हम ऐसे लोग मोहब्बत से टूट जाते हैं

ज़माना उन को बहुत जल्द मार देता है

जो लोग अपनी रिवायत से टूट जाते हैं

कई ज़माने की सख़्ती भी झेल लेते हैं

कई वजूद हिफ़ाज़त से टूट जाते हैं

हम ऐसे लोगों को इश्वा-गरी नहीं आती

हम इक ज़रा सी शरारत से टूट जाते हैं

'कबीर' जब सभी दीवारें ख़स्ता हो जाएँ

तो फिर मकान मरम्मत से टूट जाते हैं

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