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वो आते-जाते इधर देखता ज़रा सा है - इनाम कबीर कविता - Darsaal

वो आते-जाते इधर देखता ज़रा सा है

वो आते-जाते इधर देखता ज़रा सा है

नहीं है रब्त मगर राब्ता ज़रा सा है

ये कूफ़ियों की कहानी है मेरे दोस्त मगर

यहाँ पे आप का भी तज़्किरा ज़रा सा है

अब उस को काटने में जाने कितनी उम्र लगे

हमारे दरमियाँ जो फ़ासला ज़रा सा है

निगाह एक सड़क है और उस की मंज़िल-ए-दिल

इधर से जावे तो ये रास्ता ज़रा सा है

तुझे लगा कि तू कर लेगा सब्र मेरे बग़ैर

तू कर के देख ही ले तजरबा ज़रा सा है

इधर 'कबीर' बगूले हवा के तुंद-ओ-तेज़

और इस तरफ़ ये अकेला दिया ज़रा सा है

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