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सोचता हूँ सदा मैं ज़मीं पर अगर कुछ कभी बाँटता - इनआम आज़मी कविता - Darsaal

सोचता हूँ सदा मैं ज़मीं पर अगर कुछ कभी बाँटता

सोचता हूँ सदा मैं ज़मीं पर अगर कुछ कभी बाँटता

तो अंधेरों के नज़दीक जाता उन्हें रौशनी बाँटता

तेरे होते हुए हम तुझे ढूँडते फिर रहे थे अज़ीज़

काश तू हर घड़ी हर जगह हम से मौजूदगी बाँटता

ख़ालिका मुझ को मालूम होता अगर आख़िरी मोड़ है

मैं बिछड़ते हुए सारे किरदार को ज़िंदगी बाँटता

वक़्त ने बेड़ियाँ डाल रक्खी थीं पाँव में वर्ना तो मैं

शहर की सारी गलियों को हर वक़्त आवारगी बाँटता

मेरे भाई अगर दरमियाँ अपने दीवार उठती नहीं

तेरा दुख बाँटता और तुझ से मैं अपनी ख़ुशी बाँटता

मुझ को कमरे की दीवार खिड़की कैलन्डर समझते थे बस

और कोई नहीं जिन से मैं अपनी अफ़्सुर्दगी बाँटता

जो अज़िय्यत के ख़ाने में अब रख रहे हैं मोहब्बत को काश

इश्क़ होने से पहले उन्हें 'मीर' की शाइ'री बाँटता

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