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जुदा हो कर समुंदर से किनारा क्या बनेगा - इनआम आज़मी कविता - Darsaal

जुदा हो कर समुंदर से किनारा क्या बनेगा

जुदा हो कर समुंदर से किनारा क्या बनेगा

नहीं सोचा है अब तक वो हमारा क्या बनेगा

मुझे ये एक अर्से से ज़मीं समझा रही है

फ़लक से टूट कर मेरा सितारा क्या बनेगा

मैं ऐसा लफ़्ज़ हूँ जिस का कोई मतलब नहीं है

ख़ुदा ही जाने मेरा इस्तिआरा क्या बनेगा

मुसव्विर इस लिए तुम को बनाना चाहता है

उसे मा'लूम है तुम बिन नज़ारा क्या बनेगा

हवा से दोस्ती कर ली है मेरे ना-ख़ुदा ने

मिरी कश्ती का दरिया में सहारा क्या बनेगा

तुम्हारा फ़ैसला मंज़ूर है लेकिन बताओ

बिछड़ के मुझ से मुस्तक़बिल तुम्हारा क्या बनेगा

ख़ुदा-ए-बहर-ओ-बर तू ने जो फिर दुनिया बनाई

हमारी ख़ाक से इस में दोबारा क्या बनेगा

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