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दर-ए-उमीद मुक़फ़्फ़ल नहीं हुआ अब तक - इनआम आज़मी कविता - Darsaal

दर-ए-उमीद मुक़फ़्फ़ल नहीं हुआ अब तक

दर-ए-उमीद मुक़फ़्फ़ल नहीं हुआ अब तक

मैं तेरे हिज्र में पागल नहीं हुआ अब तक

तमाम उम्र ख़ुशी साथ दे नहीं पाई

नुज़ूल-ए-ग़म भी मुसलसल नहीं हुआ अब तक

तिरे बग़ैर जो इक मसअला बना हुआ था

तो मिल गया भी तो वो हल नहीं हुआ अब तक

मैं उस को भूल चुका हूँ अजीब बात है ये

जो चेहरा आँख से ओझल नहीं हुआ अब तक

तग़य्युरात ने दस्तूर सब बदल डाले

उसूल-ए-इश्क़ मोअ'त्तल नहीं हुआ अब तक

न जाने कौन मुसव्विर बना रहा है मुझे

मिरा वजूद मुकम्मल नहीं हुआ अब तक

ये तेरे इश्क़ की तौहीन है परी-ज़ादी

मैं तेरी याद में बेकल नहीं हुआ अब तक

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