हैं घर की मुहाफ़िज़ मिरी दहकी हुई आँखें
मैं ताक़ में रख आया हूँ जलती हुई आँखें
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वो संगलाख़ ज़मीनों में शेर कहता था
होगा बहुत शदीद तमाज़त का इंतिक़ाम
हर बे-ख़ता है आज ख़ता-कार देखना
उसी दरख़्त को मौसम ने बे-लिबास किया