वो संगलाख़ ज़मीनों में शेर कहता था

वो संगलाख़ ज़मीनों में शेर कहता था

अजीब शख़्स था खिलता गुलाब जैसा था

सुलगते जिस्म पे मेरे गुलों का साया था

तिरे वजूद का वो लम्स कितना महका था

जो आश्ना थे बहुत अजनबी से लगते थे

वो अजनबी था मगर आश्ना सा लगता था

परिंद शाम ढले घोंसलों की सम्त चले

चराग़ जलते ही उस को भी लौट आना था

उसी दरख़्त को मौसम ने बे-लिबास किया

मैं जिस के साए में थक कर उदास बैठा था

हमारे गिर्द वही आहनी सलाख़ें हैं

सियाह रात का कटना तो एक धोका था

चराग़ दोनों किनारों के बुझ गए 'साग़र'

हमारी राह में हाएल लहर का दरिया था

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