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अजब उलझन है जो समझा नहीं हूँ - इम्तियाज़ अली गौहर कविता - Darsaal

अजब उलझन है जो समझा नहीं हूँ

अजब उलझन है जो समझा नहीं हूँ

जहाँ होता हूँ मैं होता नहीं हूँ

हिक़ारत से मुझे क्यूँ देखता है

बता क्या मैं तिरे जैसा नहीं हूँ

वो मेरी बात जब सुनता नहीं है

जो मेरे दिल में है कहता नहीं हूँ

तअ'ल्लुक़ तोड़ता हूँ दुश्मनों से

कभी यारों से मैं लड़ता नहीं हूँ

जहाँ इज़्ज़त नहीं मिलती है मुझ को

वहाँ पर मैं कभी जाता नहीं हूँ

रवानी में मुझे रहना पड़ेगा

मैं दरिया हूँ कोई सहरा नहीं हूँ

भड़कता हूँ मैं अपनी लौ से 'गौहर'

किसी की आग से जलता नहीं हूँ

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