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हम न दुनिया के हैं न दीं के हैं - इमरान-उल-हक़ चौहान कविता - Darsaal

हम न दुनिया के हैं न दीं के हैं

हम न दुनिया के हैं न दीं के हैं

हम तो इक ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं के हैं

शीशा-ओ-मय से बे-नियाज़ हैं हम

मस्त उस चश्म-ए-सुर्मगीं के हैं

रंग हो रौशनी हो या ख़ुशबू

सब में परतव उसी हसीं के हैं

चश्म-ए-बे-ख़्वाब दामन-ए-गुलगूँ

सब करिश्मे उसी ज़हीं के हैं

हैं मकीं क़र्या-ए-मोहब्बत के

आसमाँ के न हम ज़मीं के हैं

आए थे शहर-ए-हुस्न में इक दिन

और इक उम्र से यहीं के हैं

आयतें हैं हमारी क़िस्मत की

ये जो चितवन तिरी जबीं के हैं

ज़ुल्मत-ए-शाम-ए-हिज्र से 'इमरान'

तज़्किरे एक मह-जबीं के हैं

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