अपने लहू में ज़हर भी ख़ुद घोलता हूँ मैं
अपने लहू में ज़हर भी ख़ुद घोलता हूँ मैं
सोज़-ए-दरूँ किसी पे नहीं खोलता हूँ मैं
अफ़्लाक मेरी दुर्द-ए-तह-ए-जाम में हैं गुम
तस्बीह-ए-महर-ओ-अंजुम-ओ-मह रोलता हूँ मैं
कुछ न समझ के उठ चले सब मेरे ग़म-गुसार
जाने वही कि जिस की ज़बाँ बोलता हूँ मैं
क्या जाने शाख़-ए-वक़्त से किस वक़्त गिर पड़ूँ
मानिंद-ए-बर्ग-ए-ज़र्द अभी डोलता हूँ मैं
बाज़ार-ए-दिल में दर्द का गाहक नहीं कोई
मीज़ान-ए-आरज़ू में ज़ियाँ तौलता हूँ मैं
'इमरान' बू-ए-गुल से हैं नाख़ुन महक उठे
ये किस हसीं के बंद-ए-क़बा खोलता हूँ में
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