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लोग पाबंद-ए-सलासिल हैं मगर ख़ामोश हैं - इमरान शनावर कविता - Darsaal

लोग पाबंद-ए-सलासिल हैं मगर ख़ामोश हैं

लोग पाबंद-ए-सलासिल हैं मगर ख़ामोश हैं

बे-हिसी छाई है ऐसी घर के घर ख़ामोश हैं

देखते हैं एक-दूजे को तमाशे की तरह

उन पे करती ही नहीं आहें असर ख़ामोश हैं

हम हरीफ़-ए-जाँ को इस से बढ़ के दे देते जवाब

कोई तो हिकमत है इस में हम अगर ख़ामोश हैं

अपने ही घर में नहीं मिलती अमाँ तो क्या करें

फिर रहे हैं मुद्दतों से दर-ब-दर ख़ामोश हैं

टूटने से बच भी सकते थे यहाँ सब आइने

जाने क्यूँ इस शहर के आईना गर ख़ामोश हैं

पेश-ख़ेमा है 'शनावर' ये किसी तूफ़ान का

सब परिंदे उड़ गए हैं और शजर ख़ामोश हैं

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