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वो शाम ढले तेरा मिलना वो तेरा हँसाना याद नहीं - इमरान साग़र कविता - Darsaal

वो शाम ढले तेरा मिलना वो तेरा हँसाना याद नहीं

वो शाम ढले तेरा मिलना वो तेरा हँसाना याद नहीं

जो तेरी रिफ़ाक़त में गुज़रा हम को वो ज़माना याद नहीं

मंज़िल है कहाँ कुछ याद नहीं किस सम्त है जाना याद नहीं

अब तेरा पता हम क्या पूछें ख़ुद अपना ठिकाना याद नहीं

क्या तुझ से बहाना कोई करें अब कोई बहाना याद नहीं

हम आ तो गए महफ़िल में तिरी पर देर से आना याद नहीं

ऐ अहल-ए-ज़माना ज़िद न करो वो दौर पुराना याद नहीं

अब उन की कहानी क्या कहिए ख़ुद अपना फ़साना याद नहीं

वो चाँदनी-शब फूलों की महक वो ठंडी हवाओं के झोंके

तू इतनी जल्दी भूल गया मौसम वो सुहाना याद नहीं

वो रात वो बारिश तूफ़ानी उस रात का मंज़र याद तो कर

वो इक दूजे को मीठी डिश क्या तुम को खिलाना याद नहीं

इल्ज़ाम-तराशी तो 'साग़र' दुनिया का पुराना शेवा है

यूसुफ़ पे ज़माने का तुझ को क्या उँगली उठाना याद नहीं

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