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तुझ को खो देने का एहसास हुआ तेरे बा'द - इमरान साग़र कविता - Darsaal

तुझ को खो देने का एहसास हुआ तेरे बा'द

तुझ को खो देने का एहसास हुआ तेरे बा'द

ढूँढता फिरता हूँ अब तेरा पता तेरे बा'द

फिर किसी और से की अर्ज़-ए-तमन्ना न कभी

मुझ में अरमान न फिर कोई जगा तेरे बा'द

बीच रस्ते में हमें छोड़ के जाने वाले

ए'तिमाद हम ने किसी पर न किया तेरे बा'द

चलते फिरते हुए पत्थर हैं यहाँ के इंसाँ

कौन समझेगा भला दर्द मिरा तेरे बा'द

गर्दिश-ए-वक़्त जिसे तोड़ नहीं पाई थी

देख वो शख़्स भी अब टूट गया तेरे बा'द

चाहने वाले मिरे और बहुत थे लेकिन

मैं किसी और का हो ही न सका तेरे बा'द

फैलता जाता है हर सम्त अंधेरा 'सागर'

ज़िंदगी जैसे हो इक बुझता दिया तेरे बा'द

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