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मैं अपने हाल-ए-ज़ार का आईना-दार हूँ - इमरान साग़र कविता - Darsaal

मैं अपने हाल-ए-ज़ार का आईना-दार हूँ

मैं अपने हाल-ए-ज़ार का आईना-दार हूँ

जैसे किसी ग़रीब का उजड़ा मज़ार हूँ

क्यूँ तंज़ आप करते हैं मेरे गुनाह पर

ये मैं ने कब कहा है कि परहेज़-गार हूँ

यारब मिरी तरह से कोई और भी है क्या

या सिर्फ़ एक मैं ही यहाँ संगसार हूँ

जो दिल की बात थी वही लफ़्ज़ों में ढाल दी

दुनिया समझ रही है कि तख़्लीक़-कार हूँ

सोचा था तुझ को पा के मिलेगा मुझे क़रार

तू मिल गया तो और भी मैं बे-क़रार हूँ

नाज़-ओ-निअ'म से पाल के जिस को जवाँ किया

अफ़्सोस आज मैं उसी बेटे पे बार हूँ

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