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तलाश मैं ने ज़िंदगी में तेरी बे-शुमार की - इमरान हुसैन आज़ाद कविता - Darsaal

तलाश मैं ने ज़िंदगी में तेरी बे-शुमार की

तलाश मैं ने ज़िंदगी में तेरी बे-शुमार की

जो तू नहीं मिला तो तुझ सी शक्ल इख़्तियार की

तक़ाज़ा करने मौत आई तब मुझे पता लगा

अभी तलक मैं ले रहा था साँस भी उधार की

थी सर्द याद की हवा मैं दश्त में था माज़ी के

न पूछिए जनाब मैं ने कैसे रात पार की

तमाम शब गुज़र गई बस एक इस उमीद में

पलट के आएगी सदा कभी तो इस पुकार की

ठिठुर रहे हैं क्यूँ भला ख़ुदा के ही तो हम भी हैं

चलो उठा के ओढ़ लें वो चादरें मज़ार की

जला दीं मैं ने ज़ेहन की किताबें सारी इस लिए

कि दास्तान थी सभी में उस के इंतिज़ार की

बिखेरती है शब मुझे समेट लेती है सहर

मैं चाहता हूँ ख़त्म हो ये जंग बार बार की

मुझे ग़ुरूर तोड़ना था मौज का इसी लिए

उतर पड़ा मैं नाव से बदन से नद्दी पार की

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