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मैं शजर हूँ और इक पत्ता है तू - इमरान हुसैन आज़ाद कविता - Darsaal

मैं शजर हूँ और इक पत्ता है तू

मैं शजर हूँ और इक पत्ता है तू

मेरी ही तो शाख़ से टूटा है तू

शायरी में रोज़ तूफ़ाँ से लड़ा

क्या समुंदर में कभी उतरा है तू

सुब्ह तक सहमी रहीं आँखें मिरी

ख़्वाब कैसी राह से गुज़रा है तू

क्या ख़बर कब साथ मेरा छोड़ दे

आँखों में ठहरा हुआ क़तरा है तू

कुछ कमी शायद तिरी मिट्टी में है

जब समेटा दिल तुझे बिखरा है तू

वक़्त-ए-रुख़्सत तू बुरा मत कह इसे

उम्र भर इस जिस्म में ठहरा है तू

बुज़-दिली केवल मिरे अंदर है क्या

यूँ मुझे हैरत से क्यूँ तकता है तू

ये तिरी साज़िश है या फिर इत्तिफ़ाक़

मैं जहाँ डूबा वहीं उभरा है तू

जो अँधेरे में कहीं गुम हो गया

सोचता हूँ क्या वही साया है तू

क्या ख़बर मुख़्बिर हवा का हो वही

ऐ दिए जिस के लिए जलता है तू

ज़िंदगी ने फिर तुझे उलझा लिया

मैं न कहता था अभी बच्चा है तू

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