मैं शजर हूँ और इक पत्ता है तू
मैं शजर हूँ और इक पत्ता है तू
मेरी ही तो शाख़ से टूटा है तू
शायरी में रोज़ तूफ़ाँ से लड़ा
क्या समुंदर में कभी उतरा है तू
सुब्ह तक सहमी रहीं आँखें मिरी
ख़्वाब कैसी राह से गुज़रा है तू
क्या ख़बर कब साथ मेरा छोड़ दे
आँखों में ठहरा हुआ क़तरा है तू
कुछ कमी शायद तिरी मिट्टी में है
जब समेटा दिल तुझे बिखरा है तू
वक़्त-ए-रुख़्सत तू बुरा मत कह इसे
उम्र भर इस जिस्म में ठहरा है तू
बुज़-दिली केवल मिरे अंदर है क्या
यूँ मुझे हैरत से क्यूँ तकता है तू
ये तिरी साज़िश है या फिर इत्तिफ़ाक़
मैं जहाँ डूबा वहीं उभरा है तू
जो अँधेरे में कहीं गुम हो गया
सोचता हूँ क्या वही साया है तू
क्या ख़बर मुख़्बिर हवा का हो वही
ऐ दिए जिस के लिए जलता है तू
ज़िंदगी ने फिर तुझे उलझा लिया
मैं न कहता था अभी बच्चा है तू
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